जाकी रही भावना जैसी !
एक बार देवर्षि नारद मुनि वीणा बजाते और 'नारायण-नारायण 'का उच्चारण करते हुए द्वारिकाधीश भगवान श्री कृष्ण के पास गये। भगवान के चरणों की वंदना कर आसन ग्रहण किया। भगवान बोलें-'कहिये देवर्षि !आपका कैसे आना हुआ ?' नारद ने कहा -'प्रभो !आप तो सर्वव्यापी है। कण-कण में आप व्याप्त है। ,पर मेरे मन में एक शंका है कृपा करके उसका समाधान करें। आपको दुर्योधन से अधिक युधिष्ठिर क्यों प्रिय है ?ऐसा क्या है उसमें ?' यह सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए बोलें--'देवर्षि ! सबकी अलग-अलग सोच है ,स्वभाव के अनुसार अलग-अलग भावना है। एक ही विषय पर हम अपने सोचने के ढंग से अपंने अनुकूल बना सकते है और प्रतिकूल भी। अच्छा हो ,यदि आपको अपने प्रश्न का उत्तर दुर्योधन और युधिष्ठिर से ही मिले। मै उन्हें बुलवाता हूँ। ' श्री कृष्ण ने दोनों को बुलवाया। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा -'कही से एक ऐसा आदमी ढूंढ़कर लाओ जो तुम्हारी दृष्टि में सबसे बुरा हो ?' 'जो आज्ञा 'कहकर युधिष्ठिर भगवान को प्रणाम करके चले गये। दुर्योधन के आने पर कृष्ण बोलें --''गांधारी नंदन ! तुम कोई ...