कहानी चापलूसी का दंश बहुत पीड़ा देता है

एक बार राजा विक्रमादित्य का दरबार लगा हुआ  था.।  सभी विद्जन, सामंत ,योद्धा और नवरत्न भी बैठे थे। अचानक एक सामंत के गाल पर एक मक्खी आ बैठी। उसने अपने गाल पर तमाचा मारकर मक्खी को उड़ाना चाहा तो राजा का ध्यान भी उस और चला गया जब उन्हें मालूम हुआ कि मामला एक मक्खी का है तो वे बोले-'मक्खी तो इतना काटती भी नहीं ,जितना एक बिच्छू काटता है। 'अब सभा में इस मुद्दे पर बात चलने लगी कि' कौनअधिक काटता है ?
राजा ने यह प्रश्न सभी सभासदों से पूछा। किसी ने कहा-मधुमक्खी ,किसी ने ततैया ,तो किसी ने बिच्छू ,तो किसी ने गोहरा ,किसी ने साँप कहा। वररुचि और कालिदास केवल चुप बैठे थे। 
राजा ने उनसे मुखातिब होकर पूछा-'भई ,आप दोनों क्यूँ नहीं बोल रहें ?आपका क्या अभिमत है ?इस विषय पर '
वररुचि ने बड़े सधे हुए अंदाज से कहा-'राजन ,इन सबसे गहराई से काटता है निंदक। जले-कटे या व्यंग्य भरे वचनों के डंक इन सब के काटने से अधिक जहरीले होते है। '
सबने वररुचि के इस कथन की शैली की बहुत तारीफ की। अब कालिदास से पूछा गया कि उन्हें अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहना। कालिदास ने कहा-'राजन ,यह सच है कि निंदक के जले-कटे बाग्बाणों की मार बड़ी तीखी होती है पर उसकी मार तब तक ही रहती है ,जब तक वह प्रहार करता है। मेरे मत में तो सबसे गहरा दंश होता है चापलूस का। उस समय तो दंश का दर्द पता नहीं चलता किन्तु वह अपने स्वार्थ साधन के लिए आपको जब धोखा दे देता है या आपको चिकनी-चुपड़ी बातें कहते हुए ऐसी लतों या नशों में फंसा देता है ,जो जीवन भर आपका अहित करते रहते है तो उसका दंश सालता है। उसकी पीड़ा बहुत चिरस्थायी होती है। चापलूस की चाटुकारिता के नशे में आपको अपने बारे में जो मुगालता हो जाता है ,उससे आप सबसे उद्धत व्यवहार करने लगते है। उसके फलस्वरूप आपको जीवनभर पग-पग पर प्रहार मिलते है ,जिनकी पीड़ा मृत्यु तक पीछा नहीं छोड़ती। इन सब दंशों से बचना है तो चापलूस की छाया से भी दूर रहना आवश्यक है। '
ऐसी विवेकपूर्ण और तर्क के साथ ,जिस दृष्टिकोण से महाकवि कालिदास ने बताया कि  कौन  अधिक काटता  है ,से सभा में तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी। एक बार फिर राजा विक्रमादित्य को अपने नवरत्न पर गर्व हो उठा और उन्होंने प्रसन्न होकर स्वर्ण मुद्राएँ इनाम में दी। 

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